विमल चंद्र पाण्डेय



जब आंखें खोलीं तो खुद को ऐसी किताबों के बीच पाया जिन्हें पढ़ने की सख्त मनाही थी। मेरी बुआ और मेरी मां उन उपन्यासों की प्रखर पाठिका थीं जिन्हें पढ़ते वे आपस में उन पात्रों पर चर्चा करतीं और उनके दुख से दुखी और उनकी खुशी में उल्लासित होती थीं। प्रतिबंध ने उत्सुकता को बढ़ाया और मैंने उन उपन्यासों को छिप-छिप कर पढ़ना शुरू किया तो एक नई दुनिया के द्वार मेरे लिए खुलने लगे। एक किताब में इतने भाव? यह मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। छिप कर पढ़ने की वजह से पाठन में एक गति आई जो आज भी एक अच्छी आदत की तरह साथ है। 1996 में जब हाई स्कूल में 75 प्रतिशत अंक आए तो पिता के भीतर मुझे इंजिनियर या उसी टाइप की कोई चीज बनाने की इच्छा जोर मारने लगी। मैं अब तक सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा, प्रेम बाजपेई और मनोज वगैरह के सैकड़ों उपन्यास पढ़ चुका था। दो घटनाएं तभी साथ-साथ हुईं। पिता ने मेरी मर्जी के खिलाफ मुझे इंटर में गणित लेने पर विवश किया और मैंने अचानक एक दूसरी तरह का उपन्यास पढ़ा। यह एक ऐसा उपन्यास था जिसे पढ़ कर मैं कई रातों तक सो नहीं सका। मैं यह सोच कर आश्चर्य में था कि कोई कहानी इस तरह भी लिखी जा सकती है। उन सस्ते उपन्यासों से मन हट गया और इसी तरह के उपन्यासों की तलाश रहने लगी। वह उपन्यास था शरतचंद्र का गृहदाह। फिर क्या था। खोज-खोज के उनको पूरा पढ़ डाला। उनको खोजने गया तो रास्ते में प्रेमचंद मिल गए। उनको पढ़ के अलग तरह का हर्ष हुआ। उनको खोज-खोज कर पूरा पढ़ने में लगा था कि अज्ञेय, निराला और मुक्तिबोध टकरा गए। फिर तो इन सबसे दोस्ती होने लगी। ये मेरा हाथ पकड़ कर रास्ता दिखाने लगे। इन सबको पढ़ते-गुनते इंटर पास किया और अंकों के मामले में पिछली बार से दस प्रतिशत पिछड़ गया। अब स्नातक में हिंदी लेकर पढ़ने की इच्छा जोर मारने लगी थी पर पिता का सपना अभी पूरी तरह टूटा नहीं था। उन्होंने गणित लेकर पढ़वाने के लिए साम दाम दंड भेद सभी प्रयोग कर दिए। आखिरकार बी॰एस॰सी॰ करते हुए उदय प्रकाश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, अमरकांत, मनोहर श्याम जोशी इत्यादि नामों से परिचित हुआ। साहित्य अब मेरे अंदर सांस लेने लगा था। साहित्य से जुड़ाव एक तरह से आध्यात्मिक क्रिया है, आप सबसे बेखबर रहने लगते हैं और अपनी दुनिया में मस्त। यह खतरनाक भी होता है खासतौर पर एक ऐसे लड़के के लिए जिसके सामने पूरा करियर पड़ा हो। बहरहाल बीण॰एस॰सी॰ में पहली बार मैं अपने शिक्षाकाल में ऐसी घटना से दो चार हुआ जिसे सेकेण्ड आना कहते हैं। वह भी इतने बुरे प्राप्तांकों के साथ कि उल्लेख करना संभव नहीं।
फिर पिताजी ने मेरे डगमगाते भविष्य को देखते हुए मुझे दिल्ली भेजा और अपने एक परिचित के संस्थान से कंप्यूटर कोर्स कराया ताकि लड़का धंधे से लग जाय। लड़का लग भी गया पर चैन नहीं था। अब लगता था जैसे कुछ ऐसा काम किया जाय जिसमें कहानियां न सही कुछ लिखना हो, कुछ पढ़ना हो, शब्द हों, अक्षर हों और सोंधी सोंधी गन्ध वाली किताबें हों। एक दिन अखबार में एक नोटिस देख कर दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पाठ्यक्रम के लिए आवेदन कर दिया, घर पर बिना बताए। घर पर तब बताया जब साक्षात्कार के बाद दाखिले की तिथि आई। हंगामा मचा और बवाल हुआ पर प्रवेश हो गया। इस दौरान खुद को खोजा। खूब पढ़ा और कुछ लिखने की कोशिश भी की। कोशिशों को पहचान मिलने लगी तो हौसला बढ़ा। कहानियाँ छपने लगीं। पत्र आने लगे, फोन पर बधाइयाँ मिलने लगीं। अच्छा लगता है और अच्छा लिखने की प्रेरणा भी मिलती है। आज जब अमरकांत जी जैसे लेखकों के पास बैठता हूँ और उन्हें आज भी उसी श्रद्धा और मेहनत से लिखता और उसी उत्सुकता से पढ़ता देखता हूँ तो लगता है जैसे अभी कुछ भी नहीं पढ़ा। कहने को तो वागर्थ, कथा-क्रम, नया ज्ञानोदय, दैनिक जागरण, कथा-बिंब, कथन और साहित्य अमृत जैसी पत्रिकाओं में लगभग दस-ग्यारह कहानियां छप चुकी हैं जिसने ढेरों प्रशंसक और मित्र दिए हैं पर एक भी कहानी ऐसी नहीं जिसे लिखने के बाद लगा हो कि हाँ, ऐसे ही तो लिखना चाहता था इसे। पढ़ने को लिखने से ज्यादा महत्व देता हूँ और देता रहूँगा क्योंकि यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। उदय प्रकाश सबसे पसंदीदा कहानीकार हैं और मनोहर श्याम जोशी पसंदीदा उपन्यासकार। अपने समकालीन कहानीकारों में कुणाल सिंह, चंदन पाण्डेय, नीलाक्षी सिंह और मो॰ आरिफ का प्रशंसक हूँ। जब दो-तीन कहानियां छपी थीं तो लगभग हर दूसरे दिन एक कहानी तैयार कर दिया करता था। लगता था जैसे मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ। अब गति धीमी हो गई है क्योंकि अब लिखने पर ज्यादा ध्यान देना चाहता हूँ। एक बार फिर दोहराना चाहूँगा कि ढेर सारा लिख देने में कोई बहादुरी नहीं अगर हम पढ़ने में लिखने से दस गुना ज्यादा उत्सुक नहीं हैं।

रुचियाँ- दुनिया भर की सभी भाषाओं की अच्छी फ़िल्में देखना (जिस प्रकार मुझे प्रत्येक भाषा की बढ़िया किताबें पढ़ने का) , फ़िल्म बनाना (कई डाक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण

सपना- सफलतम फ़िल्म-निर्देशक बनना

जन्मतिथि- 20-10-1981

संप्रति- UNI, इलाहाबाद में सब-एडीटर

संपर्क- 9451887246, vimalpandey1981@gmail.com

कहानी-कलश पर इनकी तिथि- १३वीं